विवाह में कुण्डली मिलान क्यों आवश्यक

मित्रों भारत में विवाह संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्मानुसार गुण मिलान भी परिपाति सदियों से है। गुण मिलान नहीं होने पर सर्वगुण सम्पन्न वर अथवा कन्या भी अच्छी जीवन साथी साबित नहीं हो सकते गुण मिलान हेतु मुख्य रूप से अस्टकूटों का मिलान अति आवश्यक है।

ये अष्टकूटों है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, भकूट, नाड़ी।

विवाह के लिये भावी वर-वधू की जन्मकुण्डली मिलान करते समय नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हें गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाड़ी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। नाड़ी व्यक्ति के मन एवं मानसिक ऊर्जा की सूचक होती है।

व्यक्ति के निजी संबंध उसके मन एवं उसकी भावना से नियंत्रित होते है। जिन दो व्यक्तियों में भावनात्मक समानता या प्रतिद्वंद्विता होती हैख, उनके संबंधों में अकराव पाया जाता है। जैसे शरीर के वात, पित्त, एवं कफ इन तीन प्रकार के दोषों की जानकारी कलाई पर चलने वाली नाड़ियों से प्राप्त की जाती है, उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी यादि, मध्य, एवं अंत्य नाम की इन तीन प्रकार की नाड़ियों के द्वारा मिलती है।

वैदिक ज्योषि अनुसार यादि, मध्य तथा अंत्य-ये तीन नाड़ियाॅं यथाक्रमेण आवेग, उद्वेग एवं संवेग की सूचक है, जिनसे कि संकल्प, विकल्प एवं प्रतिक्रया जन्म लेती है।

माननवीय मन भी कुल मिलाकर संकल्प, विकल्प या प्रतिक्रिया ही करता है और व्यक्ति की मनोदशा का मूल्यांकन उसके आवेंग, उद्वेग या संवेग के द्वारा होती है। इस प्रकार मेलापक मे नाड़ी के माध्यम से भावी दम्पत्ति की मानसिकता, मनोदशा का मूल्यांकन किया जाता है। वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष, एवं नाड़ी दोष- इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है।

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यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6+7+8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते है और शेष पाॅचों कूट (वर्ण, वेश्य, तारा, योनि, एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1+2+3+4+5=15) 15 गुणों क प्रतिनिधित्व करते है।

अकेली नाड़ी के कुल 8 गुण होते है, जो वर्ण, वेश्य यादि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक है। इस लिये मेलाप में नाड़ी दोष महादोष माना गया है।

नाड़ी दोषः- नाड़ी दोष होने पर यदि अधिक गुण प्राप्त हो रहे हों तो भी गुण मिलान को सही माना जा सकता है अन्यथा उनमें व्यभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है। मध्य नाड़ी को पित्त स्वभाव का माना गया है। इसलिये मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाये तो उनमें परस्पर अहं के कारण सम्बंध अच्छे नही बन पाते । उनमें विकर्षण की संभावना बनती है।

परस्पर लड़ाई-झगड़े होकर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है। अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव का माना जाता है। इस प्रकार की स्थिति में प्रबल नाड़ी दोष होने के कारण विवाह करते समय अवश्य ध्यान रखें। जिस प्रकार वात प्रकृति के व्यक्ति के लिये वात नाड़ी चलने पर, वात गुण वाले पदार्थो का सेवन एवं वातावरण वर्जित होता है आथवा कफ प्रकृति के व्यक्ति के लिये कफ नाड़ी चलने पर कफ प्रधान पदार्थों का सेवन एवं ठंडा वातावरण हानिकारक होता है, ठीक उसी प्रकार मेलापक में वर-वधू की एक समान नाड़ी का होना, उनके मानसिक और भावनात्ममक ताल-मेल में हानिकारक होने के कारण वर्जित है। तात्पर्य यह है कि लड़का-लड़की की एक समान नाडियांॅ हों तो उनका विवाह नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनकी मानसिकता के कारण उनमें आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम पाई जाती है। इसलिये मेलापक में आदि नाड़ी के साथ यादि नाड़ी का, मध्य नाड़ी केे साथ मध्य का और अंत्य नाड़ी के साथ संत्य का मेलापक वर्जित होता है जबकि लड़का-लड़की की भिन्न-भिन्न नाड़ी होना उनके दाम्पत्य संबंधों में शुभता का घोतक है। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी अलग-अलग हो तो नाड़ी शुद्धि मानी जाती है। वर एवं कन्या दोनों का जन्म यदि एक ही नाड़ी में हो तो नाड़ी दोष माना जाता है। सामान्य नाड़ी दोष होने पर किस प्रकार के उपाय से दाम्पत्य जीवन को सुखी बना सकते है, आइए जानें।

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1- आदि नाड़ी अश्विनी, आद्र्वा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद
2- मध्य नाड़ी- भरणी, मृगशिरा, पुुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद
3- अन्त्य नाड़ी – कृतिका, रोहिणी, अश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, रेवती

आदि, मध्य व अन्त्य नाड़ी का यह विचार सर्वत्र प्रचलित है लेकिन कुछ स्थानों पर चतुर्नाड़ी एवं पंचनाड़ी चक्र भी प्रचलित है। लेकिन व्यावहारिक रूप से त्रिनाड़ी चक्र ही सर्वथा उपयुक्त जान पड़ता है। नाड़ी दोष को इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है, इसके बारे में जानकारी हेतु त्रिनाड़ी स्वभाव की जानकारी होनी आवश्यक है। आदि नाड़ी वात स्वभाव की मानी गई है, मध्य नाड़ी पित्त स्वभाव की मानी गई है एवं अन्त्य नाड़ी कफ स्वभाव की मानी गई है। यदि वर एवं कन्या की नाड़ी एक ही हो तो नाड़ी दोष माता जाता है। इसका प्रमुख कारण यही है कि वात स्वभाव के वर का विवाह यादि वात स्वभाव की कन्या से हो तो उनमें चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण की भावना विकसित नहीं होती है। विवाह के पश्चात् उत्पन्न संतान में भी वात सम्भावना रहती हैं। इसी आधार पर आद्य नाड़ी वाले वर का विवाह आद्य नाड़ी की कन्या से वर्जित माना गया है अन्यथा उनमें व्यभिचार का दोष पैदा होने की संभावना रहती है। मध्य नाड़ी को पित्त स्वभाव का माना गया है इसलिये मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की कन्या से हो जाये तो उनमें परस्पर अहं के कारण संबध अच्छे नहीं बन पाते। उनमें विकर्षण की सम्भावना बनती है। परस्पर लड़ाई-झगड़े होहर तलाक की नौबत आ जाती है। विवाह के पश्चात संतान सुख कम मिलता है। गर्भपात की समस्या ज्यादा बनती है। अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव का माना गया है। इसलिये अन्त्य नाड़ी के वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की महिला से हो तो उनमें कामभाव की कमी पैदा होने लगती है। शान्त स्वभाव के कारण उनमें परस्पर सामंजस्य का अभाव रहता है। दाम्पत्य में गलत-फेहमी होना भी स्वाभाविक होती है। नाड़ी दोष होने पर विवाह न करना ही उचित माना जाता है। लेकिन नाड़ी दोष परिहार की स्थिति में यदि कुण्डली मिलान उत्तम बन रहा है तो विवाह किया जा सकता है।

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